Natasha

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राजा की रानी

मैंने विनय सहित कह दिया कि रुपये-पैसे की तरफ मेरी आसक्ति तो है, फिर भी, चौबीसों घण्टे उन पर बैठा रहूँ, यह विवेचना मुझे प्रीतिकर नहीं मालूम होती और इसके लिए स्त्री का सौभाग्य देखने का कुतूहल भी मुझे नहीं है। किन्तु इसका कोई विशेष फल नहीं हुआ। उन्हें निरस्त न कर सका। क्योंकि, जो स्त्री तेरह वर्ष के इतने लम्बे समय के पश्चात् भी एक पत्र को दस्तावेज के रूप में पेश कर सकती है, उसे इतने सहज में नहीं भुलाया जा सकता। वे बार-बार कहने लगीं कि इसे माता के ऋण के ही रूप में ग्रहण करना उचित है, और जो सन्तान समर्थ होते हुए भी मातृ-ऋण का परिशोध नहीं करती वह... इत्यादि-इत्यादि।

जब मैं बहुत ही शंकित और विचलित हो उठा, तब बातों ही बातों में मुझे मालूम हुआ कि पास के गाँव में यद्यपि एक सुपात्र है, परन्तु, पाँच सौ रुपये से कम में उसका पाना असम्भव है।

एक क्षीण आशा की रश्मि नजर आई। महीने-भर के बाद जैसे भी हो कोई उपाय कर दूँगा- यह वचन देकर दूसरे दिन सुबह ही मैंने प्रस्थान कर दिया। परन्तु उपाय किस तरह करूँगा- किसी ओर भी उसका कोई कूल किनारा नजर नहीं आया।

मेरे ऊपर लादा गया यह भार मेरे लिए कोई सचमुच की वस्तु नहीं हो सकता, यह मैं अनेक तरह से अपने आपको समझाने लगा; परन्तु फिर भी, माँ को इस प्रतिज्ञा के पाश से मुक्ति न देकर चुपचाप खिसक जाने की बात भी किसी तरह मैं नहीं सोच सका।

शायद एक उपाय था- मैं यह बात प्यारी से कहूँ। किन्तु, कुछ दिनों तक इस सम्बन्ध में भी मैं अपने मन को स्थिर न कर सका। बहुत दिनों से मुझे उसकी खबर भी नहीं मिली थी। उस पहुँच की खबर को छोड़कर मैंने उसे और कोई चिट्ठी भी नहीं लिखी थी। उसने भी उसके जवाब के सिवाय, दूसरा पत्र नहीं लिखा। इस बात को वह शायद नहीं मानती थी कि चिट्ठी-पत्री के द्वारा ही दोनों के बीच मिलाप का एक सूत्र रहता है। कम से कम उसके उस पत्र से तो मैं समझा। फिर भी अचरज की बात है कि दूसरे की लड़की के लिए भिक्षा माँगने के बहाने एक दिन मैं सचमुच ही पटने जा पहुँचा।

मकान में प्रवेश करते ही नीचे बैठने के कमरे के बरामदे में मैंने देखा कि वर्दी पहने हुए दो दरबान बैठे हैं। वे एकाएक एक साधारण से अपरिचित आगन्तुक को देखकर कुछ इस तरह देखते रह गये कि मुझे सीधे ऊपर चढ़ जाने में संकोच मालूम हुआ। इन्हें मैंने पहले नहीं देखा था। प्यारी के पुराने बूढ़े दरबानजी के बदले इन दो और दरबानों की क्या आवश्यकता आ पड़ी, यह मैं न सोच सका। जो भी हो, इनकी परवाह किये बगैर ऊपर चला जाऊँ अथवा विनय के साथ इनकी अनुमति माँगूँ- यह स्थिर करते-करते ही मैंने देखा कि रतन व्यस्त हुआ-सा नीचे आ रहा है। अकस्मात् मुझे देखकर वह पहले तो अवाक् हो गया; बाद में पैरों की ओर झुककर प्रणाम करके बोला-

“आप कब आए? यहाँ कैसे खड़े हैं?”

“अभी ही आ रहा हूँ, रतन। सब कुशल तो है न?”

रतन सिर हिलाकर बोला, “सब कुशल है, बाबू। ऊपर चलिए- मैं बरफ खरीदकर अभी आया।” कहकर वह जाने लगा।

“तुम्हारी मालकिन ऊपर ही हैं?”

“हाँ हैं”, कहकर वह जल्दी से बाहर चला गया।

ऊपर चढ़ते ही जो पास का कमरा मिलता है वह बैठकखाना है। भीतर से एक ऊँची हँसी का शब्द और बहुत से लोगों की आवाज सुनाई दी। मैं जरा विस्मित हुआ। परन्तु, दूसरे ही क्षण, द्वार के नजदीक पहुँचकर मैं अवाक् हो गया। पिछली दफे इस कमरे को व्यवहार में आते नहीं देखा था। इसमें तरह-तरह के साज-सामान, टेबल, चेअर आदि अनेक चीजें एक कोने में ढेर होकर पड़ी रहती थीं। बहुधा कोई इस कमरे में आता भी न था। आज देखता हूँ, सम्पूर्ण कमरे में बिस्तर है, शुरू से अन्त तक कार्पेट बिछा हुआ है और उसके ऊपर सफेद जाजम झक-झककर रही है। तकियों के ऊपर गिलाफ चढ़े हुए हैं और उनके सहारे बैठे हुए कुछ सभ्य पुरुष अचरज से मेरी ओर देख रहे हैं। उनकी पोशाक में बंगालियों की तरह धोती होने पर भी सिर पर की बेल-बूटेदार मसलिन की टोपी से वे बिहारी से मालूम होते थे। तबले की जोड़ी के पास एक हिन्दुस्तानी तबलची था और उसके पास में भी स्वयं प्यारीबाई थीं। एक तरफ छोटा-सा हारमोनियम रखा था। प्यारी के शरीर पर यद्यपि मुजरे की पोशाक नहीं थी, फिर भी बनाव-सिंगार का अभाव नहीं था। समझ गया कि संगीत की बैठक जमी हुई है- थोड़ी देर विश्राम लिया जा रहा है।

मुझे देखते ही प्यारी के चेहरे का समस्त खून मानो कहीं अन्तर्हित हो गया। इसके बाद उसने जबर्दस्ती कुछ हँसकर कहा, “यह क्या, श्रीकान्त बाबू हैं। कब आये?”

“आज ही।”

“आज ही? कब? कहाँ ठहरे हैं?”

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